मन की विचित्रता भी अजीव है,अनंत सागर में विचरित करती ही रहती है कलम के माध्यम से व्यक्त करने की कोशिश ....
Tuesday, 9 November 2010
तुम्हारे लिए ....
मैं रोज लिखता हूँ
नयें शब्द पिरोता हूँ
छंदों में ....
तुम्हारे लिए ....
उभर के मन से
तुम्हारी सूरत
कविता में समां जाती है
हर पंक्ति दोहराते ही
महसूस करता हूँ
तुम्हारे स्पर्श को
अपनी शांसों में ......
मैं रोज लिखता हूँ
तुम्हारे लिए ....
तुम्हारे लिए .........
Monday, 8 November 2010
उलझन ....
मैखाने में बैठा हूँ
तेरी यादों के साये में
पीने को तो पीता हूँ
मदहोश नहीं होता ।
क्यों आज भी दिल प्याषा है
उन यादों की गठरी का
सोच के हैरान हूँ
मालूम नहीं पड़ता ।
ये जाम भी तुझसा है
जो साथ नहीं देता
बोझिल सी पलकों को
आराम नहीं देता ।
इतना पी जाऊँ मैं
के होश गवां बैठूं ,
फिर भी
दिल के किसी कोने में
तेरी याद भटकती है ।
मैखाने में बैठा हूँ
तेरी यादों के साये में ,
पीने को तो पीता हूँ
मदहोश नहीं होता ।
Tuesday, 2 November 2010
माफ़ी नामा ,....
आज बहुत दिनों बाद वापस आया हूँ
पर लिखने को अपने पास कुछ विशेष नहीं
आप सब के पास कितना वक़्त होगा की ब्लोगिंग को भी वक़्त निकल लेते हो
मैं पिछले काफी दिनों से बहुत ही व्यस्त रहा तो वक़्त नहीं निकल पाया
मेरे सभी ब्लोगर साथियों से माफ़ी चाहूँगा
बस अपनी सफाई में यही कहूँगा ।
""बहुत कुछ है जिंदगी में ब्लोगिंग के सिवा मेरे दोस्तों""!
हाँ तो मैं कहा रहा था की अभी थोडा समय मिला तो कोशिश करूँगा की
आप को कुछ ना कुछ जरूर पहुचाता रहूँगा ।
पर लिखने को अपने पास कुछ विशेष नहीं
आप सब के पास कितना वक़्त होगा की ब्लोगिंग को भी वक़्त निकल लेते हो
मैं पिछले काफी दिनों से बहुत ही व्यस्त रहा तो वक़्त नहीं निकल पाया
मेरे सभी ब्लोगर साथियों से माफ़ी चाहूँगा
बस अपनी सफाई में यही कहूँगा ।
""बहुत कुछ है जिंदगी में ब्लोगिंग के सिवा मेरे दोस्तों""!
हाँ तो मैं कहा रहा था की अभी थोडा समय मिला तो कोशिश करूँगा की
आप को कुछ ना कुछ जरूर पहुचाता रहूँगा ।
Friday, 17 September 2010
अख़बारों की कटिंग में जिंदगी की तलाश ...
कमरे में
इधर-उधर विखरी
अखवारों की कटिंग,
अखवारों की कटिंग,
मुझे बरबस निहारती
तो मन में इक टीस सी उठती ॥
वक़्त के साथ
अपना परिचय बदलती
विज्ञप्तियों की शक्ल में
गवाह थी मेरे जूनून ,
मेरे हालात की ..... ॥
नोकरी की तलाश में ............
रोज श्याम
दरवाजे पर पहुँचते पहुँचते
बदन टपकने को होता
कभी बारिश
और वो बारिश की
धीमी फुहार भी
तीलियों सी चुभती थी ॥
तो कभी कड़कती धुप में
पसीने से ......
अरसा गुजर गया
किन्तु दिन चर्या
ज्यूँ की त्यूँ
बदलती ही नहीं ........ ॥
मध्यम जलते
ढीबरी के प्रकाश में
हर रोज
अख़बारों से
नईं कटिंग निकलना
जीने की नईं सुबह तलाशना ॥
और फिर
मौन ,...
निशब्द ,...
निश्तब्ध ,.....
टीम टिमाते तारों के साथ
रात कब निकल जाय
खबर ही नहीं ...
सुबह होते ही
फिर निकल पड़ता
अनजान मंजिल की ओर
नोकरी की तलाश में .............
Wednesday, 8 September 2010
वो अध् खुली खिड़की......!
घर के सामने
गली के उस पार
पहली मंजिल पर
वो अध् खुली खिड़की .........!
हर रोज मुझे
हैरत करती थी ...
इक गहरी ख़ामोशी,
कुछ विरानियाँ
और कितने राज
छुपाये लगती थी खुद में .... ॥
देर श्याम
अँधेरे के साथ
कुछ परछाईयाँ झिलमिल होती
किन्तु एक दम मौन ...
और खिड़की ज्यों की त्यों
वो अध् खुली खिड़की .........!
खुद की बेचैनी
कुछ इस तरह ख़त्म हुई थी उस दिन .... ॥
कमरे में
कुछ पुराना सामन
और दो ही जन थे
"वृद्ध" दादा -दादी ......... ॥
बेटा , बहु और पोते के साथ
विदेश में रहता है ।
उनकी दुनियां
उस कमरे में ही सीमित थी ॥
और खिड़की की तरफ
कभी कोई रुख ना था,
ना कोई आस थी,
किसी के आने की,
ना किसी को झाँकने की ॥
और खिड़की
ज्यों की त्यों ....!
ना जाने कब से
वो अध् खुली खिड़की ......
आज भी जब
उस खिड़की की याद आती है
तो आँखे बरबस छलछला आती हैं ...
आज हम भी ऐसे ही कमरे में
कुछ पुराने सामन के साथ ...... ॥
ना कोई आस है
किसी के आने की
ना किसी को झाँकने की
आज भी
ज्यों की त्यों.......
वो अध् खुली खिड़की .....!
गली के उस पार
पहली मंजिल पर
वो अध् खुली खिड़की .........!
हर रोज मुझे
हैरत करती थी ...
इक गहरी ख़ामोशी,
कुछ विरानियाँ
और कितने राज
छुपाये लगती थी खुद में .... ॥
देर श्याम
अँधेरे के साथ
कुछ परछाईयाँ झिलमिल होती
किन्तु एक दम मौन ...
और खिड़की ज्यों की त्यों
वो अध् खुली खिड़की .........!
खुद की बेचैनी
कुछ इस तरह ख़त्म हुई थी उस दिन .... ॥
कमरे में
कुछ पुराना सामन
और दो ही जन थे
"वृद्ध" दादा -दादी ......... ॥
बेटा , बहु और पोते के साथ
विदेश में रहता है ।
उनकी दुनियां
उस कमरे में ही सीमित थी ॥
और खिड़की की तरफ
कभी कोई रुख ना था,
ना कोई आस थी,
किसी के आने की,
ना किसी को झाँकने की ॥
और खिड़की
ज्यों की त्यों ....!
ना जाने कब से
वो अध् खुली खिड़की ......
आज भी जब
उस खिड़की की याद आती है
तो आँखे बरबस छलछला आती हैं ...
आज हम भी ऐसे ही कमरे में
कुछ पुराने सामन के साथ ...... ॥
ना कोई आस है
किसी के आने की
ना किसी को झाँकने की
आज भी
ज्यों की त्यों.......
वो अध् खुली खिड़की .....!
Saturday, 4 September 2010
पर अबकी मैं जरूर आऊंगा .....
हर साल की तरह
इस साल भी खूब फूला होगा बुरांश डाडों में .........,
खूब खिली होगी फ्योंली
विठा पाखों पर ......... ॥
पर साल मैंने कहा था
जब डाडों में बुरांश फूलेगा
तो मैं घर आऊंगा ।
बुरांश फूले
फ्योंली फूली
पर मैं न आ पाया ॥
और कितनी उदास थी तुम
अबकी मैं जरूर आऊंगा ...........!
मैं जनता हूँ,
रोज जा के ठहरती हैं तुमारी नजरें
गाँव के रास्ते पर
मेरी राह में ।
अबकी मैं जरूर आऊंगा ...........!
दबी-दबी आवाजों में
मेरा ही जिक्र होता है
पनघट पर, घसियारों में
जहाँ से भी गुजरती हो,
और मन मसोस कर
रह जाती होंगी तुम ।
अबकी मैं जरूर आऊंगा ...........!
सखियों की बातो को
बहानों से टालती,
घर में सबको
दिलासा देकर खुद उदास होती होंगी
बंद कमरे में ।
अबकी मैं जरूर आऊंगा ...........!
मेरा भी मन नहीं लगता
यहाँ तुमारी याद में,
मुन्ने की किलकारियों को
मन तरसता है,
तुमे जी भर के देखने को
आँखें तरसती हैं ।
अबकी मैं जरूर आऊंगा ............!
हर साल की तरह
इस साल भी खूब फूला होगा बुरांश डाडों में ........,
खूब खिली होगी फ्योंली
विठा पाखों पर ........ ॥
डाडों=पहाड़, विठा पाखों= छोटे छोटे पहाड़ियां , फ्योंली, बुरांश = गढ़वाल के खूबशूरत फूल
इस साल भी खूब फूला होगा बुरांश डाडों में .........,
खूब खिली होगी फ्योंली
विठा पाखों पर ......... ॥
पर साल मैंने कहा था
जब डाडों में बुरांश फूलेगा
तो मैं घर आऊंगा ।
बुरांश फूले
फ्योंली फूली
पर मैं न आ पाया ॥
और कितनी उदास थी तुम
अबकी मैं जरूर आऊंगा ...........!
मैं जनता हूँ,
रोज जा के ठहरती हैं तुमारी नजरें
गाँव के रास्ते पर
मेरी राह में ।
अबकी मैं जरूर आऊंगा ...........!
दबी-दबी आवाजों में
मेरा ही जिक्र होता है
पनघट पर, घसियारों में
जहाँ से भी गुजरती हो,
और मन मसोस कर
रह जाती होंगी तुम ।
अबकी मैं जरूर आऊंगा ...........!
सखियों की बातो को
बहानों से टालती,
घर में सबको
दिलासा देकर खुद उदास होती होंगी
बंद कमरे में ।
अबकी मैं जरूर आऊंगा ...........!
मेरा भी मन नहीं लगता
यहाँ तुमारी याद में,
मुन्ने की किलकारियों को
मन तरसता है,
तुमे जी भर के देखने को
आँखें तरसती हैं ।
अबकी मैं जरूर आऊंगा ............!
हर साल की तरह
इस साल भी खूब फूला होगा बुरांश डाडों में ........,
खूब खिली होगी फ्योंली
विठा पाखों पर ........ ॥
डाडों=पहाड़, विठा पाखों= छोटे छोटे पहाड़ियां , फ्योंली, बुरांश = गढ़वाल के खूबशूरत फूल
Tuesday, 24 August 2010
दो पल का ख्वाब ....
Saturday, 21 August 2010
मेरी ये जिंदगी भी एक किताब है...
मेरी ये जिंदगी भी एक किताब है,
कुछ लिख चूका
और ना जाने कितनी बाकि है.....
नहीं जनता !
या यूँ कहूँ कोई नहीं जनता .....
एक नया पृष्ट लिखता चला जाता हूँ
हर एक नए दिन के साथ ॥
नयी तारीख के साथ नया अध्याय
और उम्र के साथ दिनचर्या
किस अनुपात में
बढती और बदलती हैं,
मुझे आज तक पता नहीं ॥
ना जाने कितने पूर्णविराम
यहाँ हर वक़्त लगते हैं ॥
छपते जाते हैं आप ही खट्टे मीठे अनुभव ।
और श्याम ढलते ही कलम को
पृष्ट के छोर पर खड़ा पता हूँ
दिन समाप्त, पृष्ट समाप्त ..... ॥
रात के सन्नाटे में सब कुछ रुक सा जाता है,
और फिर सूरज की नयी किरणों के साथ
नयी सुबह ... नया पृष्ट ... नया अध्याय .....!
जिंदगी की किताब का
मैं लिखता चला जाता हूँ .........
Thursday, 19 August 2010
मेरे ब्लॉग/मेरी कविताओं के प्रेरणा श्रोत ................ संगीता दी /सोभना दी
दी..दी...दी... ...!!!
तुम मिले तो
क्या कुछ नहीं मिला
मेरी कलम को
लिखने का आशरा मिला
मन में एक अहसास जगा
भावनाएं बहने लगी
और मैं लिखता चला .....
एक के बाद एक नईं कविता
आज मैं हूँ ...आप हैं......
और बहुत सारे सह लेखक हैं
हर एक टिप्पणी
एक स्फूर्ति,
एक उर्जा देती है ....
लिखने को कुछ और नया
और मैं ........
लिखता ही जा रहा हूँ ....
निरंतर..... निश्छल ...विना रुके ......
तुम मिले तो
क्या कुछ नहीं मिला
मेरी कलम को
लिखने का आशरा मिला
मन में एक अहसास जगा
भावनाएं बहने लगी
और मैं लिखता चला .....
एक के बाद एक नईं कविता
आज मैं हूँ ...आप हैं......
और बहुत सारे सह लेखक हैं
हर एक टिप्पणी
एक स्फूर्ति,
एक उर्जा देती है ....
लिखने को कुछ और नया
और मैं ........
लिखता ही जा रहा हूँ ....
निरंतर..... निश्छल ...विना रुके ......
Tuesday, 17 August 2010
काश मेरा दिल.......
काश मेरा दिल
भी इक समंदर होता ।
हर दुःख हर दर्द
अंदर ही छुपा होता ॥
गुजरे दिनों की
यादों की कश्तियाँ
रोज लहराती इस पर ।
कितना प्रफुल्लित
होता ये दिल ,
और
पहले की तरह
आज भी जीना आसान होता ॥
काश ये दिल भी
इक समंदर होता ।
हर दुःख हर दर्द
अंदर ही छुपा होता ॥
मैं दूर से शांत लहरों की
मानिंद नजर आता ,
मुख मंडल पर ना
कोई भाव भंगिमा होती ।
गम में डूबा भी मुस्कराता नजर आता ॥
काश मेरा दिल
भी इक समंदर होता ।
हर दुःख हर दर्द
अन्दर ही छुपा होता ॥
भी इक समंदर होता ।
हर दुःख हर दर्द
अंदर ही छुपा होता ॥
गुजरे दिनों की
यादों की कश्तियाँ
रोज लहराती इस पर ।
कितना प्रफुल्लित
होता ये दिल ,
और
पहले की तरह
आज भी जीना आसान होता ॥
काश ये दिल भी
इक समंदर होता ।
हर दुःख हर दर्द
अंदर ही छुपा होता ॥
मैं दूर से शांत लहरों की
मानिंद नजर आता ,
मुख मंडल पर ना
कोई भाव भंगिमा होती ।
गम में डूबा भी मुस्कराता नजर आता ॥
काश मेरा दिल
भी इक समंदर होता ।
हर दुःख हर दर्द
अन्दर ही छुपा होता ॥
Monday, 16 August 2010
अभिव्यक्ति: "तुलसी जयंती "
अभिव्यक्ति: "तुलसी जयंती "
कुछ भी कहूँ दी आप ने हमें भी अपने साथ पीछे विद्यार्थी जीवन में पहुंचा दिया ......
मैं ही नहीं हर कोई अगर एक बार भी अपने विद्यार्थी जीवन को याद करेगा ... तो मन ही मन मुस्कराएगा जरूर
पर आज के विध्यार्ती ऐसे नहीं है .....
वो समां ही नहीं रही बहारों में,
गुल भी गुल भी गुलसन भी दर किनार है,
कागज के फूलों से खुशबू लेने का चलन है अब ||
Rhythm of words...: हूक!
Rhythm of words...: हूक!
इस से बेहतर है कि
इसको 'कलम' बना देना ......
....किसी के हाथ लग जाये न
ये मन का खंजरइस से बेहतर है कि
इसको 'कलम' बना देना ......
ये पंक्तियाँ मेरे जेहन से निकलती ही नहीं
पारुल जी
आपने क्या कुछ कहा डाला
इस रचना में
मेरे शब्द ...कम हैं व्यक्त करने को ...!!
तुम से रू-बरू होंगे ...!!!
आज फिर
चाँद के जरिये
ऐ जिंदगी
तुम से रू-बरू होंगे ...
मीलों की धरातल की
दूरियां
सिमट के
शून्य होगी .....
दिल से दिल की गुप्तगू
और फिर
कुछ गिले शिकवे
तो कुछ हशीन लम्हें होंगे ....
आज फिर
चाँद के जरिये
ऐ जिंदगी
तुम से रू-बरू होंगे ......
यूँ तो
हर अहसास
जिन्दा है तुम्हारा
इस दिल में याद बनकर
तेरा अक्स
जो उभरा चाँद में
तो छूने की नाकाम कोशिश करेंगे ......
आज फिर
चाँद के जरिये
ऐ जिंदगी
तुम से रू-बरू होंगे .....!!
धर्म सिंह ....;;;.....(इक अजनबी)
Sunday, 15 August 2010
पहल ...
Thursday, 12 August 2010
Tuesday, 10 August 2010
मैं क्या लिखूं ......
मन में आता है कि
आज मैं कुछ अलग लिखूं
मैं क्या लिखूं ......
गजल लिखूं
या कविता लिखूं
मैं क्या लिखूं .....
कहानी लिखूं या किस्से लिखूं
मैं क्या लिखूं .....
सोचता हूँ
कि जिंदगी के कुछ नए तराने लिखूं
मैं क्या लिखूं .....
आंदोलित मन के जज्बात लिखूं
मैं क्या लिखूं ....
या वो सब लिखूं जो मन में है
मैं क्या लिखूं .....
बिन मांझी के नाऊ सा है
ये मेरा चंचल मन
मैं क्या लिखूं .....
उध्वेलित मन पर कैसे काबू पाऊँ
मैं क्या लिखूं ....
मैं लिखुंगा, कुछ नया
अवस्य लिखूंगा
मेरी कलम मेरी पतवार बनेगी
मेरी नाऊ पार लगेगी ......
मेरी नाऊ पार लगेगी .......
आज मैं कुछ अलग लिखूं
मैं क्या लिखूं ......
गजल लिखूं
या कविता लिखूं
मैं क्या लिखूं .....
कहानी लिखूं या किस्से लिखूं
मैं क्या लिखूं .....
सोचता हूँ
कि जिंदगी के कुछ नए तराने लिखूं
मैं क्या लिखूं .....
आंदोलित मन के जज्बात लिखूं
मैं क्या लिखूं ....
या वो सब लिखूं जो मन में है
मैं क्या लिखूं .....
बिन मांझी के नाऊ सा है
ये मेरा चंचल मन
मैं क्या लिखूं .....
उध्वेलित मन पर कैसे काबू पाऊँ
मैं क्या लिखूं ....
मैं लिखुंगा, कुछ नया
अवस्य लिखूंगा
मेरी कलम मेरी पतवार बनेगी
मेरी नाऊ पार लगेगी ......
मेरी नाऊ पार लगेगी .......
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