घर के सामने
गली के उस पार
पहली मंजिल पर
वो अध् खुली खिड़की .........!
हर रोज मुझे
हैरत करती थी ...
इक गहरी ख़ामोशी,
कुछ विरानियाँ
और कितने राज
छुपाये लगती थी खुद में .... ॥
देर श्याम
अँधेरे के साथ
कुछ परछाईयाँ झिलमिल होती
किन्तु एक दम मौन ...
और खिड़की ज्यों की त्यों
वो अध् खुली खिड़की .........!
खुद की बेचैनी
कुछ इस तरह ख़त्म हुई थी उस दिन .... ॥
कमरे में
कुछ पुराना सामन
और दो ही जन थे
"वृद्ध" दादा -दादी ......... ॥
बेटा , बहु और पोते के साथ
विदेश में रहता है ।
उनकी दुनियां
उस कमरे में ही सीमित थी ॥
और खिड़की की तरफ
कभी कोई रुख ना था,
ना कोई आस थी,
किसी के आने की,
ना किसी को झाँकने की ॥
और खिड़की
ज्यों की त्यों ....!
ना जाने कब से
वो अध् खुली खिड़की ......
आज भी जब
उस खिड़की की याद आती है
तो आँखे बरबस छलछला आती हैं ...
आज हम भी ऐसे ही कमरे में
कुछ पुराने सामन के साथ ...... ॥
ना कोई आस है
किसी के आने की
ना किसी को झाँकने की
आज भी
ज्यों की त्यों.......
वो अध् खुली खिड़की .....!
दिल की गहराई से लिखी गयी एक सुंदर रचना , बधाई
ReplyDeleteबुदापा तो महज तैयारी है हकीकत की,
ReplyDeleteमौत तो आखिर सबसे अलग कर ही देती है ...
सुन्दर और प्रभावशाली काव्यात्मक अभिव्यक्ति...
बहुत प्रभावशाली रचना ...
ReplyDeleteचर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 14 - 9 - 2010 मंगलवार को ली गयी है ...
ReplyDeleteकृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया
http://charchamanch.blogspot.com/
बहुत पसन्द आया
ReplyDeleteहमें भी पढवाने के लिये हार्दिक धन्यवाद
बहुत देर से पहुँच पाया ............माफी चाहता हूँ..