Friday 17 September 2010

अख़बारों की कटिंग में जिंदगी की तलाश ...

कमरे में
इधर-उधर विखरी
अखवारों की कटिंग,
मुझे बरबस निहारती
तो मन में इक टीस सी उठती ॥
वक़्त के साथ
अपना परिचय बदलती
विज्ञप्तियों की शक्ल में
गवाह थी मेरे जूनून ,
मेरे हालात की ..... ॥
नोकरी की तलाश में ............
रोज श्याम
दरवाजे पर पहुँचते पहुँचते
बदन टपकने को होता
कभी बारिश
और वो बारिश की
धीमी फुहार भी
तीलियों सी चुभती थी ॥
तो कभी कड़कती धुप में
पसीने से ......
अरसा गुजर गया
किन्तु दिन चर्या
ज्यूँ की त्यूँ
बदलती ही नहीं ........ ॥
मध्यम जलते
ढीबरी के प्रकाश में
हर रोज
अख़बारों से
नईं कटिंग निकलना
जीने की नईं सुबह तलाशना ॥
और फिर
मौन ,...
निशब्द ,...
निश्तब्ध ,.....
टीम टिमाते तारों के साथ
रात कब निकल जाय
खबर ही नहीं ...
सुबह होते ही
फिर निकल पड़ता
अनजान मंजिल की ओर
नोकरी की तलाश में .............
कल शाम की नईं कटिंग लिए ... ।।

Wednesday 8 September 2010

वो अध् खुली खिड़की......!

घर के सामने
गली के उस पार
पहली मंजिल पर
वो अध् खुली खिड़की .........!
हर रोज मुझे
हैरत करती थी ...
इक गहरी ख़ामोशी,
कुछ विरानियाँ
और कितने राज
छुपाये लगती थी खुद में .... ॥
देर श्याम
अँधेरे के साथ
कुछ परछाईयाँ झिलमिल होती
किन्तु एक दम मौन ...
और खिड़की ज्यों की त्यों
वो अध् खुली खिड़की .........!
खुद की बेचैनी
कुछ इस तरह ख़त्म हुई थी उस दिन .... ॥
कमरे में
कुछ पुराना सामन
और दो ही जन थे
"वृद्ध" दादा -दादी ......... ॥
बेटा , बहु और पोते के साथ
विदेश में रहता है ।
उनकी दुनियां
उस कमरे में ही सीमित थी ॥
और खिड़की की तरफ
कभी कोई रुख ना था,
ना कोई आस थी,
किसी के आने की,
ना किसी को झाँकने की ॥
और खिड़की
ज्यों की त्यों ....!
ना जाने कब से
वो अध् खुली खिड़की ......
आज भी जब
उस खिड़की की याद आती है
तो आँखे बरबस छलछला आती हैं ...
आज हम भी ऐसे ही कमरे में
कुछ पुराने सामन के साथ ...... ॥
ना कोई आस है
किसी के आने की
ना किसी को झाँकने की
आज भी
ज्यों की त्यों.......
वो अध् खुली खिड़की .....!


Saturday 4 September 2010

पर अबकी मैं जरूर आऊंगा .....

हर साल की तरह
इस साल भी खूब फूला होगा बुरांश डाडों में .........,
खूब खिली होगी फ्योंली
विठा पाखों पर ......... ॥
पर साल मैंने कहा था
जब डाडों में बुरांश फूलेगा
तो मैं घर आऊंगा ।
बुरांश फूले
फ्योंली फूली
पर मैं न आ पाया ॥
और कितनी उदास थी तुम
अबकी मैं जरूर आऊंगा ...........!
मैं जनता हूँ,
रोज जा के ठहरती हैं तुमारी नजरें
गाँव के रास्ते पर
मेरी राह में ।
अबकी मैं जरूर आऊंगा ...........!
दबी-दबी आवाजों में
मेरा ही जिक्र होता है
पनघट पर, घसियारों में
जहाँ से भी गुजरती हो,
और मन मसोस कर
रह जाती होंगी तुम ।
अबकी मैं जरूर आऊंगा ...........!
सखियों की बातो को
बहानों से टालती,
घर में सबको
दिलासा देकर खुद उदास होती होंगी
बंद कमरे में ।
अबकी मैं जरूर आऊंगा ...........!
मेरा भी मन नहीं लगता
यहाँ तुमारी याद में,
मुन्ने की किलकारियों को
मन तरसता है,
तुमे जी भर के देखने को
आँखें तरसती हैं ।
अबकी मैं जरूर आऊंगा ............!
हर साल की तरह
इस साल भी खूब फूला होगा बुरांश डाडों में ........,
खूब खिली होगी फ्योंली
विठा पाखों पर ........ ॥

डाडों=पहाड़, विठा पाखों= छोटे छोटे पहाड़ियां , फ्योंली, बुरांश = गढ़वाल के खूबशूरत फूल