मेरी ये जिंदगी भी एक किताब है,
कुछ लिख चूका
और ना जाने कितनी बाकि है.....
नहीं जनता !
या यूँ कहूँ कोई नहीं जनता .....
एक नया पृष्ट लिखता चला जाता हूँ
हर एक नए दिन के साथ ॥
नयी तारीख के साथ नया अध्याय
और उम्र के साथ दिनचर्या
किस अनुपात में
बढती और बदलती हैं,
मुझे आज तक पता नहीं ॥
ना जाने कितने पूर्णविराम
यहाँ हर वक़्त लगते हैं ॥
छपते जाते हैं आप ही खट्टे मीठे अनुभव ।
और श्याम ढलते ही कलम को
पृष्ट के छोर पर खड़ा पता हूँ
दिन समाप्त, पृष्ट समाप्त ..... ॥
रात के सन्नाटे में सब कुछ रुक सा जाता है,
और फिर सूरज की नयी किरणों के साथ
नयी सुबह ... नया पृष्ट ... नया अध्याय .....!
जिंदगी की किताब का
मैं लिखता चला जाता हूँ .........