आज फिर
उस कोने की टेबल पे
इक परछाई है .....
जा के
छु भर लूं
या समेट लूं उसे
अपने आँचल में
मेरे हालात की
ये कैसी रुशवाई है ......
या फिर
छोड़ आऊं
एक पैमाना
हर रोज की तरह,
और छू लूं
उसके सांशों की महक
जो मुझ में समाई है .....
आज फिर
उस कोने की टेबल पे
इक परछाई है ......अजनबी