यूँ तो बर्षों गुजर गए
मुझको जमी पर लाये हुए
आँख का तारा हूँ मैं उनकी
पर वो रौशनी न कर सका ?
चूम के हर बार मेरे माथे को
मांगते हैं जो दुआ
आज तक उनके लिए मैं
क्या कभी कुछ कर सका ?
आँख का तारा हूँ मैं उनकी
पर वो रौशनी न कर सका ?
हर फैसला मंजूर है
उनको मेरा आज तक
पर क्या सही और क्या गलत है
क्या कभी मैं जान सका ?
आँख का तारा हूँ मैं उनकी
पर वो रौशनी न कर सका ?
सोचता हूँ कर गुजर जाऊँ
कुछ ऐसा
खुद विखर जाऊँ ख़ुशी बन कर मैं उनकी राह में
आँख से ओझल
न हो सकूँ फिर
पहलू में उनकी मैं सिमट रह जाऊँ !
बहुत आसान और सरल शब्दों मे सुंदर रचना ,बधाई।
ReplyDeleteवाह !! एक अलग अंदाज़ कि रचना ......बहुत खूब
ReplyDeleteबड़े दिनों की अधीर प्रतीक्षा के बाद आज आपका आगमन हुआ है
ReplyDelete