Friday 17 September 2010

अख़बारों की कटिंग में जिंदगी की तलाश ...

कमरे में
इधर-उधर विखरी
अखवारों की कटिंग,
मुझे बरबस निहारती
तो मन में इक टीस सी उठती ॥
वक़्त के साथ
अपना परिचय बदलती
विज्ञप्तियों की शक्ल में
गवाह थी मेरे जूनून ,
मेरे हालात की ..... ॥
नोकरी की तलाश में ............
रोज श्याम
दरवाजे पर पहुँचते पहुँचते
बदन टपकने को होता
कभी बारिश
और वो बारिश की
धीमी फुहार भी
तीलियों सी चुभती थी ॥
तो कभी कड़कती धुप में
पसीने से ......
अरसा गुजर गया
किन्तु दिन चर्या
ज्यूँ की त्यूँ
बदलती ही नहीं ........ ॥
मध्यम जलते
ढीबरी के प्रकाश में
हर रोज
अख़बारों से
नईं कटिंग निकलना
जीने की नईं सुबह तलाशना ॥
और फिर
मौन ,...
निशब्द ,...
निश्तब्ध ,.....
टीम टिमाते तारों के साथ
रात कब निकल जाय
खबर ही नहीं ...
सुबह होते ही
फिर निकल पड़ता
अनजान मंजिल की ओर
नोकरी की तलाश में .............
कल शाम की नईं कटिंग लिए ... ।।

5 comments:

  1. एक बेरोजगार की व्यथा को बखूबी शब्द दिए हैं ...


    श्याम की जगह शाम कर लें ..

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  2. बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।

    मशीन अनुवाद का विस्तार!, “राजभाषा हिन्दी” पर रेखा श्रीवास्तव की प्रस्तुति, पधारें

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  3. बहुत सुंदर शब्द दिए हैं एक बेरोजगार की जिंदगी की दिनचर्या को.

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  4. बेरोजगार की व्यथा
    बहुत अच्छी प्रस्तुति।

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  5. आपकी कविता दिल को छूती है ,एक सार्थक रचना !

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